संघ नींव में ज्ञात - अज्ञात विसर्जित पुष्प श्रृंखला 46 =
एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय -
दीनदयालजी उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को ग्राम धनकिया (राजस्थान) में हुआ था। साधन-सम्पन्न घर में जन्म लेकर उसकी सभी सुविधाओं का सहारा पाकर तो कोई भी सफलता के शिखर चूम सकता है किन्तु अभाव के कांटो में पैदा होकर हर पल दुर्भाग्य के थपेड़ों से संघर्ष करते हुए अडिग हिमालय की शुभ्र विभूति के समान चमकने-दमकने वाले बिरले ही होते है। ऐसे ही एक बिरले महापुरुष दीनदयालजी थे। धनकिया ग्राम में दीनदयाल जी के नानाजी श्री चुन्नीलालजी शुक्ल स्टेशन मास्टर थे। दीनदयालजी के पिताजी श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय नगला चन्द्रभान फरह जिला मथुरा (उत्तरप्रदेश) के निवासी थे। 3 वर्ष की अवस्था में उनके पिताजी का देहान्त हो गया अतः उनकी माताजी श्रीमती राम प्यारी देवी उन्हें नाना के घर ले आई। जब वे 8 वर्ष के थे तब माताजी भी स्वर्ग सिधार गई। उसके बाद उनका पालन-पोषण उनके मामा राधा रमण शुक्ल ने किया जो फ्रंटियर मेल में गार्ड की नौकरी करते थे।
1932 में दीनदयालजी के एक चचेरे मामा श्री नारायण शुक्ल उन्हें रायगढ़ (अलवर रियासत) ले आयें, जहाँ वे स्टेशन मास्टर थे। 1933 में दीनदयालजी ने मिडिल पास किया और अलवर बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। जब नारायण शुक्ल का स्थानान्तरण सीकर स्टेशन (जयपुर रियासत) हो गया तब दीनदयालजी की पढ़ाई कल्याण हाईस्कूल सीकर में हुई। 1935 में उन्होंने मेट्रिक की परीक्षा अजमेर बोर्ड में प्रथम क्षेणी में उतीर्ण की। परिणामस्वरूप बोर्ड एवं स्कूल दोनों की तरफ से एक-एक स्वर्ण पदक दिया गया। सीकर के महाराजा ने अपनी ओर से 250 रुपये का नगद पुरुस्कार दिया तथा आगे की सम्पूर्ण पढाई के लिये छात्रवृति देने की घोषणा की। इंटरमीडियट की पढाई बिडला कालेज पिलानी से की। 1937 मैं यह परीक्षा भी दीनदयालजी ने प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पाकर उतीर्ण की और इस बार भी उन्हें दो स्वर्ण पदक मिलें। इसी बीच उनका छोटा भाई शिवदयाल मात्र 14 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हो गया।
दीनदयाल जी की मेधावीपन को ध्यान में रखकर बी ए की शिक्षा हेतु सनातन धर्म कालेज कानपुर भेजा गया। 1939 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में बी ए उतीर्ण की , उस वर्ष बीए मैं प्रथम आने वाले वे एकमेव छात्र थे। 1937 में कानपुर में भाऊराव देवरस की बैठक में दीनदयालजी का जाना हुआ और वे संघ से जूड गये। 1937 दिसम्बर में काशी में शीत शिविर का आयोजन हुआ जिसमें दीनदयालजी ने भाग लिया। उसके बाद ग्रीष्मावकाश में नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग करने पहुंच गये। 40 दिन की इस अवधि में उन्होंने संघ विचारधारा को हृदयंगम किया और मराठी भाषा भी सीख ली। वर्ग के बाद बहुत जिम्मेदारी से शाखा कार्य करने लगे। उन्होंने 1941 में द्वितीय वर्ष का संघ प्रशिक्षण पूर्ण कर लिया। तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में बौद्धिक परीक्षा में देशभर में उनका प्रथम स्थान रहा। अपनी मामी के आग्रह के कारण वे प्रशासनिक सेवा की प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित हुए और हमेशा की तरह यहाँ भी प्रथम स्थान प्राप्त किया किन्तु राष्ट्र भक्ति की भावना से अभिभूत होने के कारण उन्होंने सरकारी नौकरी में जाने से मना कर दिया।
दीनदयालजी के दो ममेरे भाई थे, इनकी उनसे इतनी आत्मीयता थी कि इनके मामा जी इनकी गिनती अपने पुत्रों में किया करते थे और कहते थे मेरे 3 बेटे है। इनके मामा की इच्छा थी कि वे नौकरी एवं विवाह कर लें। जब मामाजी ने विवाह की चर्चा चलाई तो दीनदयालजी ने इसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार करते हुए यह कहा कि वे विवाह ही नहीं, नौकरी भी नहीं करना चाहते अपितु राष्ट्रसेवा में ही समर्पित होना चाहते है। इस संकल्प के बाद 21 जुलाई 1942 को अपने मामा श्री नारायण शुक्ल को पत्र लिखा कि आपने मुझे सब प्रकार से पाला-पोसा और पढाया लिखाया अतः एक संरक्षक के नाते आपकी यह इच्छा-अपेक्षा नितान्त स्वाभाविक है कि मैं घर-गृहस्थी बसाऊंगा और जीविकोपार्जन करते हुए पारिवारिक जिम्मेदारियों में हाथ बटाऊंगा किन्तु मैंने एक दुसरा ही मार्ग अपनाने का निश्चय किया है। अपने-अपने परिवार की चिन्ता तो सभी करते है। परन्तु इस हिन्दू समाजरूपी विशाल परिवार की चिंता करने वाले भी कुछ लोग चाहिये। अपने इस समाज की दशा उस विशाल समुद्री जहाज की तरह है, जिसमें सारे लोग अपनी-अपनी पोटली संभाले बैठे है किन्तु जहाज के पेंदे में हो गये छेदों से अन्दर आने वाले पानी की ओर किसी का ध्यान नहीं है। यदि इन छेदों को समय रहते भरने का समुचित प्रयास नहीं किया गया तो एक दिन ऐसा आएगा, जब पूरा जहाज ही डूब जायेगा तब न कोई पोटली बचेगी और न पोटली वाला। अतः मैंने अपनी शक्ति, बुद्धि और क्षमता के अनुसार उस महा प्रयास में योगदान करने का निश्चय किया है जो इन छेदो को भरने के लिये प्रारम्भ किया गया हैं।
1942 में उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ लखीमपुर (उतरप्रदेश) से प्रारम्भ हुआ। वे उत्तर प्रदेश से निकलने वाले पहले प्रचारक थे। गोला गोकर्णनाथ में दीनदयालजी को बहुत कष्ट झेलने पड़े न रहने का ठिकाना और न खाने की व्यवस्था। एक भडभूजे के यहाँ से दो-चार पैसे के चने लेकर और लोटा भर पानी पीकर किसी प्रकार पेट की ज्वाला शांत करते। यह क्रम कई दिन चला। दीनदयाल जी के अथक परिश्रम से गोला में शाखा खुल गई। वहां के हाईस्कूल के विद्याथियों एवं अध्यापकों से दीनदयालजी ने इतना अच्छा परिचय सम्बन्ध बना लिया था कि कभी-कभी जब कोई अध्यापक नहीं आना तो दीनदयालजी पढाने के लिये जाते थे। उनका पढाना सबको इतना भाया कि जब वहां के प्रधानाध्यापक रिटायर होने लगे तो व्यवस्थापकों ने दीनदयालजी से प्रधानाध्यापक बनते का आग्रह किया और 250 रुपये वेतन का प्रस्ताव दिया किन्तु उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि भाई मुझे दो धोतीया, दो कुर्ते और भोजन की आवश्यकता है। लगभग 30 रुपये में मेरा सब कुछ हो जाता है, मैं इतने रुपये लेकर क्या करूंगा। संघ शिक्षा वर्ग के बाद उन्हें लखीमपुर जिला प्रचारक का दायित्व दिया गया। जब लखीमपुर में अच्छा काम जम गया तो भाऊराव देवरस ने उन्हें सीतापुर एवं हरदोई जिले का भी प्रवास करने को कहा। 1947 में दीनदयालजी को उतरप्रदेश सह प्रान्त प्रचारक का दायित्व दिया गया। पूरे देश में प्रान्तीय स्तर का दायित्व लेने वाले वे पहले गैर - महाराष्ट्रीयन प्रचारक थे। 1951 में डाक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू मंत्रीमंडल से इस्तीफा दे दिया और वे श्री गुरुजी से मिले तथा एक राष्ट्रवादी राजनैतिक दल बनाने की इच्छा व्यक्त की। तब उनके आग्रह पर गुरुजी ने दीनदयालजी को श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सहयोग करने को कहा। 21 सितम्बर 1951 को लखनऊ में एक सम्मेलन कर भारतीय जनसंघ की स्थापना की गई। दीनदयालजी को महामंत्री की जिम्मेदारी दी गई।
1952 से 1967 तक महामंत्री के रूप में भारतीय जनसंघ का मार्गदर्शन करते रहे। उनसे अनेक बार दल का अध्यक्ष पद संभालने का आग्रह किया गया किन्तु पद, प्रतिष्ठा और आत्म प्रचार से दूर रहने वाले दीनदयालजी ने इसे अस्वीकार करते रहे परन्तु आपात धर्म के नाते दिसम्बर 1967 में अध्यक्ष पद का भार उठाना स्वीकार कर लिया। उनकी अध्यक्षता में कालीकट (केरल) अधिवेशन ने देश की राजनीति में तहलका मचा दिया। एकात्म मानवदर्शन का उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया जो साम्यवाद और पूंजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है। 11 फरवरी 1968 को वे रेल द्वारा लखनऊ से पटना जा रहे ये तब रास्ते में किसी ने उनकी हत्या कर मुगल सराय रेल्वे स्टेशन पर लाश फेंक दी। इस प्रकार एक कुशल संगठक, प्रभावी वक्ता, लेखक, पत्रकार, चिंतक, का स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार एक ओर पुष्प संघ नींव में विसर्जित हो गया।दीनदयाल जी के बारे में अधिक जानकारी के लिये वीरेश्वर द्विवेदी द्वारा लिखित संघ - नींव में विसर्जित द्वितीय पुष्प पढ़ सकते है।
।। भारत माता की जय।।
संदर्भ -1. तेजोमय प्रतिबिम्ब तुम्हारे प्रदर्शनी भाग - 2
2. जीवन दीप जले भाग - एक लेखक विजय कुमार
संकलन - स्वयंसेवक एवं टीम

